मेरी डायरी #5


वह मुझ से मिलता है,
और भुला देता है...
यह इश्क भी ना,
अजीब सजा देता है।
कत्ल खुद करके, कातिल...
किसी और को बना देता है।
मजहबी लोग हैं,
खुद ब खुद संभल जाएंगे,
तू क्यों बेकार में,
खुद को सजा देता है !
मुमकिन है क्या,
किसी के इश्क़ का मुकम्मल हो जाना,
वह जगता है,
फिर भी बत्तियां बुझा देता है।


#2
ऐ मन क्यूँ न कुछ ऐसा कर.,
जिसमेँ न हो सफलता की चाह,
न असफलता का डर
न हो जीत की खुशी, न हार भर
सारे सँसार से इतर,
क्यूँ न हम बसाए मानवता का घर.
जहाँ दिवाली भी बने ,
ईद की भी हो न जहां फिक़र,

ऐ मन क्यूं न कुछ ऐसा कर !

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