उथल पुथल के बीच

सब कुछ भागता सा जा रहा है,

आंखों के सामने से लगातार,

मैं बस एकटक लगाए देख रहा हूं ,

दौड़ते हुए लोग, गाडियां, 

और उनमें दौड़ती बेताबियों को ।

मैं रुका हुआ हूं, 

एक ही तरह से,

देख रहा हूं,

छिनती हुई आजादियों को !

इन किस्सों में,

मैं कहीं भी नहीं, 

लेकिन, दौड़ भाग से परे, 

भी  एक अलग दुनिया है,

शांति से जहां दो जन मिल

समझ  सके चुप्पियों को,

जीवन के उथल पुथल को,

मैं बस ऐसे ही ठहरा रहना चाहता हूं,

ताउम्र एक शांत सागर के पानी सा...

कि  हिचकोले भी समा जाए उस 

धरातल में,

और जब उग्र हो ,

तो सुनामी ही काफी है,

सब कुछ पुनरस्थापित करने को।




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