सफर

मुझे नहीं पता इस ज़िंदगी के सफर में कौन रुका है,
मैं या समय।
समय तो रुक नहीं सकता,
फिर क्या मैं?
समय को सतत ही क्यूं माना गया?



क्या ये सच में सतत है?
अभी तक तो कोई सूत्र बना ही नहीं जो समय को असतत सिद्ध करे।
कुछ चीजों को परिभाषित करने के लिए हमें कुछ को सतत मानना ही पड़ेगा।
या फिर ये बस एक भ्रम है?
क्यूंकी जो परिभाषा समय को सतत नहीं सिद्ध कर पाए उसे तो अमान्य घोषित कर दिया गया,
तो क्या मैं रुकी हूं?
नहीं शायद नहीं, हो भी सकता है।
मुझे नहीं पता शायद,
ये बोलना उतना ही सही है जितना समय के साथ छेड़ छाड़ है।

~शिखा

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