साल
कुछ साल रह जाते हैं हमारे अंदर ऐसे जैसे...
रह जाता है झेलम कश्मीर का फिर भी कश्मीर का नहीं माना जाता...
जैसे फूलते हैं अमलतास के फूल पर उनका अंत जमीन को उतना ही सुशोभित करता है जैसे पता हो उनकी नीयती यही है या फिर वो जमीन को अपना मान लेते हैं...
या फिर ऐसे जैसे एक खूबसूरत कविता अधूरी रह गई हो..
कुछ दोस्तों की तरह जो सतत् रहते हैं...
उन फुहारों के पानी की तरह जिनसे हमें लगता है वो नया पानी पर असल में वो वही पुराना होता है...
ऐसे जैसे कुछ डर हमेशा के लिए रह जाते हैं...
या फिर उन अनकही कहानियों की तरह जिसको हम तो नहीं जानते पर हमारे अवचेतन मन में इस तरह घर कर गईं हैं और निकलने का सोचती भी नहीं...
या फिर उन पुराने कपड़ों की तरह जिनको हम फेंकना ही नहीं चाहते....
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